Friday, October 2, 2009

बात गांधी के आदर्शों की ..!!!

गुजरात के पोरबंदर में जन्मे विश्व शान्ति दूत महात्मा गांधी का आज जन्म दिन है...!! आदर्श समाज की स्थापना का सपना संजोये गाँधी के विचारों को याद करने और उन्हें सही मायने में अपनाने का आज सबसे बड़ा दिन है...भारत के कण कण में रमे , अपने विचारों से अपने आदर्शों से जिन्होंने भारतीय समाज को जो नई दिशा दी उस महान समाजवादी, विचारवादी, महापुरुष को नमन करने का आज सबसे उत्तम दिन है....जिन्होंने एक संपन्न और रामराज्यका सपना देखा था उनको पुरा करने का ये सुनहरा दिन है...भारतीय स्वतंत्रता के इस महान व्यक्ति के विचारों ने संकीर्ण मानसिकता की ख़त्म करने का एक ख्वाब संजोया जिसे पुरा करने का काम हम पर है...लेकिन आज के इस समाज में क्या उनका ख्वाब पुरा हो पायेगा॥??? मुझे नही लगता की जिस गाँधी ने अहिंसा और भाईचारे का संदेश दिया उस अगंधी के सपनो को हम पुरा कर पाएंगे......आज हर उस जगह पर भ्रस्टाचार फैला हुआ है जहाँ गाँधी का नाम लिखा है...हर उस जगह पर हिंसा की बात होती है जहाँ उनकी तस्वीर लगी है...यकीन नही आपको तो..याद कीजिये गाँधी की तस्वीर लगी नोट...ये वही नोट है जिस पर महात्मा गाँधी की अहिंसावादी तस्वीर लगी है....जिसे लिए भाई भाई को....दोस्त दोस्त को और तो और बेटा बाप को मारने पर तुला है....रही कसार पुरी कर दी है सरकारी बाबुओं ने .....गांधी के तस्वीर के निचे बैठकर भ्रस्टाचार को बढ़ावा दे रहे है...अब इसे गाँधी का सम्मान तो कहा नही जा सकता बाकी मैं कहना नही चाहता ....आप ख़ुद ही समझदार हो...नोट पर गाँधी जी की मुस्कुराती तस्वीर लगी है....जिसकी लेकिन उस मुस्कराहट के पीछे कहीं न कहीं एक दर्द छुपा हुआ है...उस तस्वीर को सही मायनों में नकली नोट बनने वालों ने उतरा है....उन्होंने गांधी का दर्द भरा चेहरा उस नोट पर लगाया है...मुस्कान छीन ली है.....शायद यही हकीक़त है....कहीं भी सत्य का दामन न छोड़ने वाले गांधी का दर्द शायद इन नकली नोट वालों को समझ में आ गया तभी तो इन्होने गांधी जी के चेहरे की असली तस्वीर पेश कर दी...जो दर्द में डूबी है...हर पल हर घड़ी यही सोच रही है...हाय रे भारत और हया रे भारत के वासियों जिनके लिए मैंने इतनी बड़ी कुर्बानी दी आज वही मेरे इस सपनो के संसार को उजाड़ने पर लगे है...सही है की आज गांधी जी हमारे बीच नही हैं..नही तो उन्हें सच में बहुत दुःख होता ..... आज गाँधी के विचारों को नई दिशा देने का दिन है... मैं तो बस अपने आप से यही गुजारिश करूँगा की गांधी जी के विचारों को जरा सा भी अपने अन्दर ढाल सका तो उनका पवित्र नाम लेने का अधिकारी होऊंगा.....मेरी उन सब से भी गुजारिश है जो ऐसा करेंगे मैं उन सब का आभारी रहूँगा....
जय गाँधी
जय भारत...

Saturday, September 5, 2009

अधूरी रात का अधुरा ख्वाब.!!

कुछ लोग दिन के उजालों के लिए तरसते हैं कुछ रात के अंधेरों के लिए..उन्ही में से एक मैं हूँ...दिन के उजालों की हकीक़त आज कल काटने को दौड़ती है....जी करता है की अंधेरों का मौसम आए और मुझे अपनी आगोश में लेकर एक चैन की नींद सुला जाए..मन उब गया है आँखें इन वीरान अंधेरों की आदी हो गई हैं...महबूब की उन मदहोश अदाओं से बागी सी हो गई है.. कभी बंजरों में फूल खिलाने की तमन्ना रखते थे आज उन तमन्नाओं को जिंदा रखने के लिए एक और तमन्ना जगानी पड़ रही है..कभी शिद्दत से जिस उजाले का इंतज़ार रहता था आज उसी शिद्दत से उसके जाने का इंतज़ार किया करते हैं...कभी इन आंखों ने आज़ादी के जो सपने देखे थे.जिन कहानियों को सच मान लिया था....जिन सपनो को सजाये बैठे थे..आज वे सपने...वो कहानियाँ सब कोरी बकवास सी लगती हैं..ऐसा नही है की मैं एक गुलाम हूँ ..जी नही ,मैं भी आप सब की तरह इस आजाद देश का आजाद नागरिक हूँ अन्तर है तो बस इतना की मेरी सोच इस आज़ाद देश के गुलामों की तरह न होकर एक आज़ाद ख्याल है..जो दिल है वही जुबान पे है...बस इसी का खामियाजा मुझे भुगतना पड़ रहा है...पेशे से पत्रकार...माफ़ कीजियेगा गरीब पत्रकार बोलने के सिवा कुछ कर भी क्या सकता है...बस वही ख़्वाबों में जीना और उसी ख़्वाबों के सहारे मर जाना ... लेकिन मैं ऐसा नही करना चाहता .......उन सोती आंखों में जागने वाले सपने को जिंदा करना चाहता हूँ लेकिन खवाब है की कभी पुरा ही नही होता....आख़िर क्या है इसमे जो मैं देखना चाहता हूँ...कुछ अधूरापन कुछ खालीपन हमेशा ही लगा रहता है....और ऐसा हो भी क्यूँ न...जब भी सपने देखने की बात आती है...इस फरेबी उजालों का साया ख्यालों को इस कदर आगोश में ले लेता है की सपने में आने से पहले ही वे कहीं गुम हो जाते हैं....मुझे chidh है ऐसे उजालों से जो es भीड़ में भी मुझे tanha कर ख़ुद किसी और की wafaon को gale lagate हैं...मुझे इंतज़ार है उस रात का जब रात भी पुरी होगी और ख्वाब भी...जब mujhe ये हकीक़त में bharosa हो जाएगा की वो waade वो कहानियाँ...वो baatein जो कभी मेरा दिल behlaane के लिए कही गई thin वो सच हैं...ये ujaale chhant जायेंगे और अंधेरों के रूप में asali उजाला मेरी आंखों को chakachaundh कर जाएगा ये fareb न रहेगा और हकीक़त का aaina ख़ुद ba ख़ुद saaf हो जाएगा...मैं चैन से sounga और मेरा ख्वाब पुरा हो जाएगा...

Tuesday, June 23, 2009

जागो !!


जहाँ नारी की पूजा की जाती है वहां देवताओं का वास होता है.......भारत का इतिहास रहा है की यहाँ नारी और कन्या को देवी के रूप में पूजा जाता रहा है.....चाहे वो धन की देवी लक्ष्मी हो, विद्या की देवी सरस्वती हो , शील स्वरुप माँ दुर्गा हो या दुष्टों का संहार करने वाली काली पूजा सबकी की जाती है.....हमारी संस्कृति और सभ्यता के प्रमुख अंग,त्योहारों में से कई ऐसे त्यौहार हैं जिनमे कन्यायों,लड़कियों की पूजा की जाती है.....लेकिन आज उसी कन्या को कई मानसिक रूप से विकलांग लोग घृणा की दृष्टि से देखते हैं......इसे सो़च की संकीर्णता नही तो और क्या कहेंगे........
कहते हैं औरत और जुल्म का नाता सदियों पुराना है....मानव सभ्यता का विकास जैसे जैसे रफ़्तार पकड़ता गया, महिलाओं का शोषण भी बढ़ता गया ..........जबसे समाज पुरूष प्रधान हुआ है महिलाओं की स्थिति बद से बदतर होती चली गई है......महिला शक्ति से परिचित पुरूष ने उसे दबाना शुरू किया .....नारी को शिक्षा, धार्मिक अनुष्ठान और कई विधाओं से बेदखल कर उसे घर की चारदीवारियों तक सीमित कर दिया........सन १९४७ में देश की तस्वीर बदली और भारत गुलामी से आजाद हुआ लेकिन ये आज़ादी देश की थी महिलाओं की नहीं.......२१ वीं सदी आई तो पुरा परिदृश्य ही बदल गया....औरत ने हर क्षेत्र में अपनी बुलंदी के झंडे गाडे लेकिन इस बदलाव के साथ महिला शोषण के तरीके भी बदल गए.....अब ये शोषण घर की चारदीवारियों से लेकर बीच चौराहों तक जा पहुंचे ....लेकिन इस शोषण की जिम्मेदारी कौन ले ???क्या यही है नारी की तस्वीर?? ...आख़िर ये शोषण कहाँ तक होगा....??मैं बात कर रहा हूँ महिलाओं के सामाजिक अधिकार, मानवीय अधिकार की.....
हमारे देश के कई हिस्सों में आज भी एक कन्या के जन्म पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है....जिसे हमारी संकीर्णता का परिचायक माना जा सकता है..........कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध के बोझ तले हमारा समाज दबता चला जा रहा है....अजन्मी कन्या को सूर्य की पहली किरण देखने से पहले ही माँ की कोंख में मार गिराया जाता है....लेकिन ये समस्या किसी एक ज़ाति,सम्प्रदाय या प्रान्त की नही बल्कि पुरे देश की है......बेटे की चाह रखने वाले लड़की के जन्म लेने से पहले ही उसे कोंख में मार देते हैं..और ये हमारे देश के लिए कोई नई बात नही है.....इस अमानवीय परम्परा में आधुनिक तकनीकों के ग़लत प्रयोग से कन्या को गर्भ में ही मारकर उसे जन्म के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है.....
आज मनुष्य की पुत्र कामना की कमजोरी को बखूबी समझते हुए बाजार की ताकतें भी अपने स्वार्थ के लिए इस घिनौने कृत्य में शामिल हो गई हैं........महिलाओं के विरूद्ध इस अमानवीय व्यवहार को अकेला अपराध नही कहा जा सकता ....सभी सामाजिक और आर्थिक स्थितियां इस बात की प्रमाण है की ये अमानवीय अपराध महिलाओं के प्रति भेदभाव पूर्ण रवैये की अलग दिशाओं के मात्र उदहारण हैं.......दहेज़ हत्या ,बलात्कार, यौनशोषण ...ये सब महिलाओं के प्रति भेदभाव के स्पष्ट उदहारण के रूप में साफतौर पर देखी जा सकती है......
भ्रूण हत्या ....एक ऐसा सच जिसे झुठलाया नही जा सकता और इस अपराध को सबसे जघन्य अपराध भी माना जा सकता है....लेकिन उसके बावजूद भी ये अपराध बदस्तूर जारी है.....
ओस की बूंद सी होती हैं बेटियाँ.....
स्पर्श खुरदुरा हो रोटी हैं बेटियाँ......
रोशन करेगा बेटा तो बस एक ही कुल को
दो दो कुलों की लाज को धोती हैं बेटियाँ.....
कोई नही है एक दुसरे से कम
हीरा अगर है बेटा तो सच्चा moti है बेटियाँ.......
in पंक्तियों का काफी महत्व है..लेकिन आज इस दर्दभरी पुकार को कोई नही सुनता...ख़ुद वो माँ भी नही सुनती जिसने उसे अपनी कोंख में paala है......ऐसे में माँ की परिभाषा के क्या मायने हो सकते हैं आप ख़ुद ही अंदाजा लगा लीजिये......
भारत में लड़कियों से भेदभाव कोई nayi बात नही है......ये भेदभाव पहले भी होता रहा है..उस समय लड़कियों का जन्म होते ही उन्हें मार दिया जाता था...आज इसकी जगह ले ली है नई तकनीकों ने ...........भ्रूण हत्या से तो ऐसा लगता है की मानो कलयुग की निर्दयी हवा ने माँ के दिल की करुना सुखा दी है.....इसीलिए तो भ्रूण हत्या रुकने का नाम नही ले रही...अगर ये सिलसिला यु ही chlta रहा तो भारतीय जन गणनाओं में कन्याओं की घटती संख्या में भरी असंतुलन पैदा हो जाएगा ....अगर जनसँख्या के लिंगानुपात की बात करें तो १९९१ से २००१ में बच्चों के लिंगानुपात में गिरावट आई है जो अनुपात १९९१ में ९४५ लड़कियां प्रति १००० लड़का थी वो २००१ में ९२७ लड़कियां प्रति १००० लड़कों तक रह गई है.......अगर यही हाल रहा तो वक्त ऐसा भी आ सकता है की लड़कों की तुलना में लड़कियां रहेंगी ही नही...........अब हमें ये सोचना है की आख़िर ऐसा अमानवीय बर्ताव क्यूँ.....जिस देश की राष्ट्रपति एक महिला ......जहाँ की महिलाओं ने देश ही नही पुरे विश्व में अपनी सफलता के परचम lahraye हैं...उसी देश की ये स्थिति क्यूँ ....???अब तो जागो ..

Monday, June 22, 2009

हाशिये पर ज़िन्दगी.!!


सिनेमा और साहित्य समाज का आइना होते हैं..फ़िल्म वाले कहते हैं की "हम वो दिखाते हैं जो समाज में होता है वहीं लेखक कहता है की हम वो लिखते हैं जो हमारे आस पास घटित होता है...बस फर्क इतना होता है की समाज के सच को सिल्वर स्क्रीन पर तस्वीरों के जरिये कल्पनाओं की चाशनी से तर करके परोसा जाता है ....समाज की हकीक़त सिनेमा के परदे पर जब अपने साजो सामान के साथ उभरती है तो देखने वाला उसमे डूब जाता है......परदे पर दिखने वाली कहानी अगर उसके आस पास हुई तो उसे वो सच सी लगने लगती है .....
सात समुंदर पार से सपनो को बेचने वाला एक सौदागर हिन्दुस्तान आया ...चमकती दमकती मायानगरी मुंबई में रुका और यहाँ की बस्ती के सच को सिनेमा के परदे पर दिखा गया जिससे हम हिन्दुस्तानी अक्सर कतराते हैं.......उसने कैमरे की आँख से हमारे उस ज़ख्म को हरा कर दिया जिसे हम छुपाते फिर रहे हैं या जानबूझकर नज़रअंदाज करते आए हैं..........उसने एक नया सपना उन सभी को दे दिया जिसकी कल्पना भी उन्होंने न की होगी......उसने इन निराश आंखों को सपने दे दिए ....एक नया घर बनाने की.......
भारत के हर बड़े शहर के भीतर झुग्गियां आबाद हैं.....चाहे वो मुंबई हो,दिल्ली हो या देहरादून....इन शानदार शहरों के लिए ये झुग्गियां मखमल के थान में टाट के पैबंद की तरह हैं..ज़िन्दगी यहाँ भी मुस्कुराती है.लेकिन शायद इसे जीना नही कह सकते.....कसमसाती हुई इंसानी ज़िन्दगी यहाँ इंसान के जिस्म पर भारीभरकम बोझ सी लगती है.....ऐसी ही एक बस्ती से मेरा सामना हुआ.....
बिंदास पुल के नीचे आबाद ये मलिन बस्ती मुंबई के धारावी जैसी तो नही लेकिन यहाँ रहने वाले करीब वैसे ही हैं ......ज़िन्दगी जीने का मतलब ज़ंग लड़ने से कम नही.....हसीं सपने तो यहाँ शायद ही किसी की आंखों ने देखे हों.........यहाँ तो न रोटी मयस्सर है न ही सर छुपाने को छत .....ख्वाब तो तब बुने जाते हैं जब वक्त हो ....यहाँ तो वक्त रोटी की तलाश में ही गुजर जाता है.............पेट की आग के सुलगे हुए अलाव को किसी तरह बुझाना यहाँ की पहली जरुरत है.......लेकिन बावजूद इसके यहाँ के लोग सपना देख रहे हैं........ऐसा सपना जो बहुत बड़ा नही है......ये सपना उस बुनियादी जरुरत से जुडा है जो हर इंसान का एक हक है....
यहाँ भी ऐसे बच्चे हैं जो फिल्मों के किसी नायक की तरह करोड़पति बनने का ख्वाब सजाये घूम रहे है.......लेकिन इन बस्तियों की हकीक़त फिल्मों से कोसो दूर है......क्योंकि फिल्मों की हकीक़त असल ज़िन्दगी के लिए नही...... जब पेट भरने का ही कोई जुगाड़ नही है तो यहाँ यहाँ इन बच्चों के माँ बाप को उम्मीद भी नही की अपने औलादों को तालीम के लिए कभी इस बस्ती की देहलीज से बाहर निकाल पायेंगे.............यहाँ तो बच्चा होश सँभालते ही परिवार का बोझ उठाने लगता है.......ढाबों के जूते बर्तन साफ़ करते करते उसके हाथों की रेखाएं ही मिट जाती हैं .....लेकिन उनके छोटे से आशियाने का ख्वाब पुरा नही हो पता जो इस बस्ती में पाँव रखते ही देखा था......
ऐसे में उन्हें भी इंतज़ार है एक ऐसे रहनुमा की जो आए और उन्हें "slumdog millionaire" की तरह ही पल में सारे ख्वाब पुरे करके चला जाए........लेकिन क्या कभी पुरा हो पायेगा इनका ये अधुरा ख्वाब..????

Tuesday, June 16, 2009

बेगाना बचपन !!

ये दौलत भी ले लो...
ये शोहरत भी ले लो..
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी


किसी शायर की ये मशहूर ग़ज़ल बचपन की चाह को बखूबी बयां करती है. बचपन जिसकी आगोश में खुशियों की बेल खिलती है ...जिसकी एक मुस्कराहट दिल को सुकून पहुंचती है. मासूम बचपन की ठिठोली, शरारते घर परिवार माँ बाप को जीने का एक नया हौसला, नयी उम्मीद , नए सपने देती है.बच्चे भगवन का रूप होते हैं, इनकी दिल को छू लेने वाली बात , उनके दिल में सबके लिए प्यार की भावना का होना है. बच्चे किसी भी देश समाज , परिवार का भविष्य होते हैं या यूँ कहे की ये आगे चलाकर एक सुन्दर समाज की स्थापना करते हैं.जहाँ एक तरफ मासूम बचपन को सजोने, बच्चों के विकास के लिए अनेकों काम किये जा रहे हैं, उनकी शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य के लिए माँ बाप फिक्रमंद हैं वहीँ कुछ जगहों पर बचपन की मासूमियत खोती जा रही है .खामोश होती इस बचपन की वजह क्या है.
आज समाज में मासूम बचपन कहीं गुम होता जा रहा है ...खोती जा रही है बच्चों के होठों से मुस्कराहट। इस मासूम विरासत को डुबोने के पीछे सबसे बड़ा हाथ है बाल मजदूरी का॥
बाल मजदूरी आज के समाज में बड़ी तेजी के साथ बढती जा रही है.और बनती जा रही है एक अभिशाप ....आखिर क्या वजह है की कलम चलने वाले हाथ आज कूड़ा बटोरने को मजबूर हैं ..जिन कन्धों पर स्कूल बैग होना चाहिए वे आज दूसरो का बोझ धो रहे हैं...जिस बचपन को खिलखिलाना चाहिए उस चेहरे पर परेशानी , आंसू और चिंता की लकीरें हैं .आखिर क्या वजह है मासूमियत के छीन जाने की .बचपन के बेजार होने की ... दिन प्रतिदिन बल मजदूरों की संख्या बढ़ते जाने की?
बाल मजदूरी आज एक महामारी के रूप में फैलता जा रहा है..अगर आंकडों नज़र डालें तो पुरे विश्व भर में ५ से १४ वर्ष की उम्र के लगभग १ करोड़ ५८ लाख
बाल मजदुर हैं और यह संख्या दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है. इस संख्या में ६१ प्रतिशत बाल मजदुर एशिया, ३२ प्रतिशत अफ्रीका से और ७ प्रतिशत बाल मजदुर लैटिन अमेरिका से हैं. भारत में २००१ की जनगणना के अनुसार २ करोड़ २६ लाख बच्चों में से ६५ लाख बच्चे स्कूल नहीं जाते वहीँ १९९१ में बाल मजदूरों की संख्या ११ लाख ५९ हज़ार थी जो २००१ में बढ़कर १२ लाख ६६ हज़ार हो गयी है. बाल मजदूरी की बढती समस्या..... दयनीय हालातों के लिए आखिर कौन है जिम्मेदार ??? गरीबी...शिक्षा की कमी या समाज .......कहीं न कहीं इसके पीछे जागरूकता ...सामाजिक शोषण...अव्यवस्थित श्रम को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है..बाल मजदूरी के बढ़ते हालातों के पीछे किसका है हाथ ?? समाज के दलालों का या सरकारी नीतियों की कमियां?? हम किसे ठहराएँ जिम्मेदार ???
बाल मजदूरी की बढती समस्या को देखते हुए भारतीय संविधान में २६ जनवरी १९५० से ही कई कानूनों को जगह दी गयी है. जहाँ संविधान के अनुच्छेद १४ के अनुसार १४ वर्ष से कम उम्र के बच्चों से काम करवाना प्रतिबंधित है वहीँ अनुच्छेद ४५ १० वर्ष तक के बच्चों को आवश्यक शिक्षा का प्रावधान करता है जबकि अनुच्छेद ३९ बच्चों के स्वास्थ्य व सुरक्षा के लिए बनाया गया है फिर भी आज बाल मजदूरों की संख्या में दिन प्रतिदिन बढोत्तरी होती ही जा रही है.इसे भारतीय संविधान की अवहेलना कहें या सरकारी तंत्र की कमी जो बाल मजदूरी को रोकने में असफल होती जा रही है. आखिर इन अनदेखियों, असफलताओं की मूल वजह क्या है जो बाल श्रम जैसे घिनौने अपराध को बढ़ावा दे रही है. आखिर कौन है इन सब का जिम्मेदार ?????
कहीं न कहीं जाने अन्जाने हम किसी न किसी रूप में उन मासूम चेहरों की मासूमियत, मुस्कराहट की छीन रहे हैं. एक अच्छे , सुंदर समाज का ख्वाब जो हमने देखा था उसे अंधेरों में डुबोते जा रहे हैं. विश्व के महान कवी विल्लियम वोर्ड्सवोर्थने कहा है की " एक बच्चा , एक महान व्यक्ति का पिता हो सकता है ".फिर भी हम इस अपराध को रोकने का प्रयास नहीं कर रहे . हम दिन प्रतिदिन बच्चों की मासूमियत को चुराते जा रहे हैं .. एक महान दार्शनिक का कहना है कि " सबसे बुरा चोर वो है जो बच्चों के खेलने के समय और उनकी मुस्कराहट को छीन लेता है.".आज हमें ये सोचना है कि बाल मजदूरी जैसे घिनौने....संगीन अपराध को कैसे रोकें??हमें सोचना है कि हम क्या चाहते हैं ?? मासूम बचपन कि खिलखिलाहट या बेगाना बचपन..???

Tuesday, December 16, 2008

Zindagi ki rahon mein...

tujhe gham ki sham kahun ya khushi ka savera
zindagi tu hi bata tujhpe mera haq hai ya tera..
kabhi tune rahon mein kaante bichhaye
kabhi tune palkon pe humko bithaya...
chaha jo maine khushi ka ujala
gham ke andheron ne mujhko daraya..
kabhi gham ki ghazalon ne mujhko rulaya
kabhi maa ki lori ne mujhko sulaya
kahi ankahi ansuni thi jo baatein..
sabhi hanske tune hai mujhko sikhaya..
tumhaari badaulat main ab bhi khada hu..
jab bhi dagar pe kadam ladkhadaya..
tujhe gham ki sham kahu ya khushi ka savera
zindagi tu hi bata tujhpe mera haq hai ya tera........